रविवार, 1 अगस्त 2010

क्या इस शिक्षा से बच्चे स्वस्थ बड़े होंगे ????

शायद हमें पता नहीं कि हम अपनें बच्चे को खूब दिमागी बनाने के चक्कर में उसके स्वास्थ्य को बिगाड़ दे रहे हैं. लगभग सभी भारतीय शहरों में कॉन्वेंट शिक्षा के अलावा सरकारी विद्यालयों में बच्चो के खेलने के मैदान हैं ही नहीं. सुबह से शाम तक उसे किताबों के बोझ तले इतना दबा दिया जाता है की वो अपने बचपन की सारी चीज़ें भूल जाता है. वो अठखेलियाँ भी करता है तो किताबों के माध्यम से. मजाक भी करता है तो टीवी सीरियल के. शायद मुझे कहने में कोई अफ़सोस नहीं है ये भारत के ये बच्चे बचकानी हरकतों की ज़िन्दगी जी नहीं पाए. समय से पहले आधुनिक परिवेश की जीवन शैली ने इन्हें पहले ही बड़ा बना दिया और जब इनकी स्कूली शिक्षा की शुरुआत हुई तो सिर्फ किताबों में ही दबे रहे. घर से स्कूल जाने के बाद A B C ...के अलावा खेल के मैदान में उतरने का अवसर ही नहीं मिला. अवसर मिले भी क्यूँ वो जिस स्कूल में पढता है शायद उसमे खेलने का मैदान ही नहीं. ये बचपन की ज़िन्दगी अगर बगैर खेले जवान हो गई तो आगे वो स्वस्थ कैसे रहेगा शायद हम ये भूल जाते हैं की पढ़ने के साथ साथ उस बच्चे का स्वास्थ्य भी ज़रूरी है लेकिन हम भी बड़े बहुत बड़े हो गए हैं. हमें विज्ञान दवाइयां और बहुत सारी आधुनिक चीज़ों के बारे में ठीक से जागरूक हो गए हैं इसीलिए तो जब बच्चे को सरदर्द हुआ तो पेन किलर घर में रखते हैं जुखाम हुआ तो डॉक्टर से दावा से पूछ लेते हैं और बुखार हुआ तो खुद ही बता देते हैं की मलेरिया आदि है. इए काश हम अपनी उस पुराणी मानसिकता को जिसे कभी डॉक्टरों ने नाकारा था और फिर वैज्ञानिको ने उसकी ज़रूरत बताई कि बच्चों का धूल मिटटी में खेलना उसके शारीर कि प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने के लिए आवश्यक है...